कैसस्टल जाफ़री
कैसस्टल जाफ़री जावेद 'अर्शी' तखलीके-शेर के इब्तिदाई दौर से गुजर कर इस वक़्त उस मक़ाम पर नजर आ रहे हैं जहाँ तजय्यने-शेर की सरहद शुरू होती है। उनके अशआर के मुताले से महसूस होता है कि शायर ने फ़िक्र की संजीदगी और लेहजे की शगुफ्तगी को असासे-फ़न बनाया है और अपने लहू की आँच को लफ़्जों में समो कर गजल कहने की सई-ए-जमील में मसरूफ़ हैं। वह आँच जो उनके जहन ने असी मसाइल, जाती कर्ब और माजी की बिछड़ी हुई यादों से कशीद की है। जावेद 'अर्शी' के यहाँ वह अँखोले नजर आ रहे हैं जो एक शादाब मौसम की इत्तिला दे रहे हैं लेकिन इन अँखोलों को बचाना शर्त है। अगर वह मुशायरों की हवा से खुद को बचा ले गए तो उम्मीद है कि वह और अच्छे शेर कहने लगेंगे। उनके यहाँ आफ़ाक़ी क़द्रों और इंसानी रिश्तों से एक वालिहाना लगाव नजर आता है जो उनकी शायरी को महबूबियत अता करता है। इनके मिज़ाज में रूमानियत और जमालियात की झलकियाँ बड़ी फन्कारी से पिरोई हुई मिलती हैं। खोए हुए माजी से गहरा तअल्लुक़ और तहदार लगाव ने उनसे इस अंदाज़ के बेशुमार शेर कहलवाए हैं। गजल वह पत्थर है जिसे सब उठाए फिरते हैं, मगर क़ारी उन्हीं फ़न्कारों को दिलोजाँ में बसाता है जो इसे तराशने का हुनर जान गए हैं। जावेद 'अर्शी' के कलाम से भी यह अन्दाजा होता है कि वह इस राज से बखूबी वाकिफ़ हो चुके हैं। उनकी गजलों में इस हुनर की परछाईयाँ जा-ब-जा नजर आती है, जो वीराने में बहार का तसव्वुर पेश करती हैं:अब कोई नहीं, कोई नहीं मेरे अलावा अब मुझसे मुखातिब मेरी तन्हाई हुई है जावेद अर्शी' को तन्हाई का यह मुखात्बा मुबारक हो कि शायर के लिए खुद कलामी जरूरी है।
मखमूर सईदी
जावेद 'अर्शी' को मैंने पहली बार मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी, भोपाल के एक कुल हिन्द मुशायरे में सुना था और उनके लेहजे की ताजगी व तवानाई ने मझे मतवज्जा भी किया था और किसी हद तक मुतारिसर भी। उसके बाद दिल्ली के दो-तीन मुशायरों में उन्हें सुना। उनके कलाम की ताजगी के अलावा उनका शेर पढ़ने का अंदाज़ भी मुतारिसर करने वाला है। वह तरन्नुम से नहीं तहत में पढ़ते हैं और इस तरह पढ़ते हैं कि खुद शेर की मुँह बोलती तस्वीर बन जाते हैं। जावेद 'अर्शी' मुशायरों के मक़बूल शायर हैं लेकिन वह मुशायरों में धूम मचा देने वाले दूसरे शायरों की तरह अवामी पजीराई हासिल करने के लिए कभी भी अपनी सतह से निचे उतरकर न तो शेर कहते हैं और न ही पढ़ते हैं। उनके कलाम के सरसरी मुताले से यह भी अन्दाजा होता है कि वह शेर किसी अन्दुरूनी तहरीक के जेरे-असर कहते हैं, मुशायरों के सामयीन को खुश करने के लिए नहीं। जावेद 'अर्शी' की गजलों में रिवायात का शऊर भी है और अपने इंफरादी लेहजे की जुस्तजू भी। इन गजलों का शायर अपने तहजीबी पसमंजर से भी वाकिफ़ है और असी सूरते-हाल पर उसकी नजर भी है लेकिन दोनों तरफ़ इसका रवैय्या जानिबदाराना वाबस्तगी का नहीं बल्कि गैरजानिबदाराना वाबस्तगी का है। वह अपने हर मुशाहिदे में सच्चाई का मुतलाशी है और सच्चाई की इस तलाश का हासिल वह तल्खियाँ हैं जो उसके रगो-पे में सराइयत कर गई हैं। जावेद 'अर्शी' के अक्सर अशआर इन कड़वाहटों के नाम्माज़ हैं जो उनके मुशाहिदात की राह से दाखिल हुई हैं।
जावेद अर्शी जावेद
'अर्शी' इन्दौर के ही नहीं बल्कि मुल्क के बाशऊर शायर हैं, जिन्होंने अदब व शायरी के अक़दार और रिश्तों की तहज़ीब को मर्कज़ी हैसियत देते हुए जनी तामीरो-तश्कील के अक्सर गोशे तलाश करने की कोशिश की है, जो अब तकरीबन उनकी पहचान बन गए हैं। उन्होंने गज़ल के रंग और रूप को जिस तरहनिखारा और संवारा है, उसने उन्हें मुल्कगीर पैमाने पर अदबी वकार बख्शा है:रोशनी वह जो दस्तरस में हो चाँद-तारों का क्या करे कोई टिमटिमाने लगे दिए सारे बुझ न जाए खुदा करे कोई इन अशआर में उनकी फिक्री चमक और जह्नी उसअत का एतराफ़ किए बगैर नहीं रहा जा सकता। ऐसे कितने ही अशआर हैं जिनको उर्दू गजल को निखारने के लिए कहना जरूरी होता है। जावेद अर्शी'ने इस गुर को समझ लिया है, इसीलिए उनकी ग़ज़लें लायके-तहसीन बन चुकी हैं। मुझे यकीन है कि उनका यह इर्तिकाई सफ़र इसी तरह जारी रहेगा।
निदा फाज़ली